वैदिक गणित शिक्षण पद्धति की वर्तमान गणित शिक्षण में उपयोगिता (Research Paper)
वैदिक
गणित शिक्षण पद्धति की वर्तमान गणित शिक्षण में उपयोगिता
कुसुम
कुशवाहा *
शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है तथा गणित इसका एक महत्वपूर्ण अंग है।
प्राचीनकाल से ही गणित के पठन-पाठन तथा प्रयोगों के विभिन्न प्रमाण मिलते रहे हैं।
आज के वैज्ञानिक युग में गणित का अपना विशेष महत्त्व है। परन्तु आज विद्यार्थियों
में गणित के प्रति अरुचि तथा उनके कौशलों में कमी परिलक्षित होती है। अतः यदि
सामान्य गणित के स्थान पर प्राचीन वैदिक गणित की सरलीकृत विधियाँ पाठ्यक्रम में
सम्मिलित कर दी जाएँ तो छात्र मनोरंजनपूर्वक गणित का अध्ययन कर सकेंगे। प्रस्तुत
अध्ययन इसी दिशा में एक प्रयास है।
प्रस्तावना
शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है।
शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों का निर्धारण शिक्षा
के द्वारा ही होता है। बालकों की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करना ही शिक्षा का
उद्देश्य है। शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु व सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए
औपचारिक साधन की आवश्यकता होती है और यह साधन है-विद्यालय।
भारत में प्राचीन
काल में छात्रों को गुरुकुल में शिक्षा दी जाती थी। उन्हें बालू व रेत पर लिखना
सिखाया जाता था। गिनती सिखाने के लिए एक यन्त्र का प्रयोग किया जाता था, जिसे गिनतारा कहते थे। कुछ समय पश्चात् पटिया या पाटी का प्रयोग किया जाने
लगा। इसलिए गणित का नाम पाटी गणित भी पड़ गया। स्लेट का आविष्कार बहुत बाद में हुआ
और कागज़ का आधुनिक युग में।
भारत की शिक्षा व्यवस्था में गणित एक प्रमुख विषयों में से एक था। कौटिल्य के
अर्थशास्त्र के अनुसार चूड़ाकर्म के बाद छात्र को लिपि और संख्या सीखने का ज्ञान
होना चाहिए। हाथी गुम्फा के लेख से ज्ञात होता है की कलिंग नरेश 'खारवेल'
के अपने जीवन के नौ वर्ष लिपि व ड्राइंग रेखागणित व अंकगणित
सीखने में बिताये थे। राजकुमार गौतम ने भी 8 वर्ष की अवस्था में गणित सीखा था। जैन
ग्रंथों में भी गणित के अध्ययन के सूत्र मिलते हैं।
प्राचीन भारत में गणित पढ़ाने का उद्देश्य वस्तुओं के मूल्य निकलवाने में और
हिसाब रखने में किया जाता था। उस समय कार्य-प्रणाली की अपेक्षा फल पर अधिक जोर
दिया जाता था। छात्रों को पहाड़े तथा गुर सिखाये जाते थे। विद्यालयों में गणित
इसलिए उस समय पढ़ाया जाता था क्योंकि इसका सम्बन्ध धर्म पुस्तकों, गणित-ज्योतिष,
फलित ज्योतिष आदि से था।
आज के वैज्ञानिक युग में गणित का अपना विशेष महत्व है। इसलिए विद्यालयी
पाठ्यक्रम में गणित को अनिवार्य विषय के रूप में रखा गया है। लेकिन छात्र गणित में
अधिक कमजोर पाए जाते हैं तथा
विद्यार्थियों के दिमाग में यह भूत सवार रहता है कि गणित एक कठिन विषय है। इसलिए
आज आवश्यकता इस बात की है कि गणित विषय को किस प्रकार सरल और रुचिकर बनाया जाए
जिससे छात्र पुनः रुचिपूर्वक गणित विषय का अध्ययन कर सकें। इसके साथ-साथ छात्रों
को उनके गुणों एवं कौशलों से परिचित कराया जाए।
गणित में सबसे अधिक छात्र अनुत्तीर्ण होते हैं जिसका प्रमुख कारण गणित की जटिल
विधियाँ हैं। अतः यदि सामान्य गणित के
स्थान पर प्राचीन वैदिक गणित की सरलीकृत विधियाँ पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दी जाए
तो छात्र मनोरंजनपूर्वक गणित का अध्ययन कर सकेंगे।
गणित शिक्षण की मानव जीवन में
उपयोगिता
प्राचीनकाल से ही शिक्षा में गणित का
सदा उच्च स्थान रहा है। गणित की उपयोगिता के बारे में बताते हुए जैन गणितज्ञ श्री महावीराचार्य जी ने
अपनी पुस्तक 'गणित सार संग्रह'
में लिखा है कि,"लौकिक,
वैदिक तथा सामाजिक जो-जो व्यापार हैं उन सब में गणित का
उपयोग है,
कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, पाकशास्त्र,
गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद भवन निर्माण आदि विषयों में गणित अत्यंत उपयोगी है।"
सूर्य, चन्द्रमा,
पृथ्वी, ग्रह आदि की गतियों के
बारे में जानने के लिए गणित की ही आवश्यकता होती है। द्वीपों, समुद्रों,
पर्वतों, सभा भवनों एवं गुंबदाकार
मंदिरों के परिमाण तथा अन्य बातें गणित की सहायता से जानी जाती हैं। मनुष्य के
बौद्धिक एवं मानसिक विकास का आधार गणित को ही माना गया है।
मानव जीवन में नित्य ही प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में आदान-प्रदान
करता है। क्रय,
विक्रय तो जीवन का अंग बन गया है। साधारण काल से लेकर महान
व्यक्तियों तक यह प्रक्रिया स्वचालित है। यही क्रम जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में
जारी रहता है। इस प्रकार हम कह सकते है कि हमारी आधुनिक सभ्यता का आधार गणित ही
है। विज्ञान की खोजों के पीछे गणित के ही सिद्धांत सर्वोपरि हैं। बिना गणित के
विज्ञान की खोजों में सफलता मिलना नितांत असंभव है प्रत्येक व्यावहारिक कार्य में
जैसे नापना,
तौलना, गिनना आदि का बोध गणित
के ज्ञान के द्वारा ही संभव है, विज्ञान विषयों में ही
नहीं बल्कि अन्य विषयों में भी गणित की अहम् भूमिका होती है।
जूता बनाने की नाप,
कपड़ा सिलवाने की नाप, दवाई देने की
खुराक की मात्रा इन सभी कार्यों में गणित के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। एक अनपढ़
किसान भी गणित के ज्ञान से परिचित है कि एक एकड़ खेत में कितना बीज व खाद डाला
जाएगा। इस सम्बन्ध में उसे उपज का भी अनुमान होता है। किसी भी क्षेत्र में काम
करने वाला व्यक्ति जैसे किसान, मजदूर, व्यापारी,
डॉक्टर, वकील, इंजीनियर,
शिक्षक, पुजारी आदि सभी गणित के
अंकों व सिद्धांतों का प्रयोग करते हैं। मजदूर अपनी मजदूरी गिनना जानता है और रसोइया दाल सब्जी में पड़ने वाले मसाले, नमक,
मिर्च आदि अनुपात गणित द्वारा ही जानता है। व्यापारी लाभ, हानि,
घाट,
बट्टा, ब्याज व लाखों रुपयों की
हेराफेरी बड़ी चतुराई से करता है ये सब गणित के ज्ञान का ही परिणाम है। इस प्रकार
प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी रूप में गणित का प्रयोग अवश्य करता है।
आज संसार प्रत्येक वस्तु की उन्नति को मापना चाहता है। घर का बजट बनाते समय, आय और मजदूरी निकालते समय, स्कूल जाते समय, थर्मामीटर लगाते समय सभी में गणित की आवश्यकता होती है। जीवन का कोई पक्ष ऐसा
नहीं है जिसमें गणित की आवश्यकता न हो।
वेतन का बिल बनाते समय,
मकान बनाते समय, नाप-तौल आदि के
पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता होती है। बेचारे कुली से लेकर वित्त मंत्री तक जिनका लाखों और करोड़ों रुपये का बजट बनता है उन्हें भी हिसाब
रखने के लिए गणित के ज्ञान की आवश्यकता होती है। गणित की उपयोगिता के सम्बन्ध में
यंग महोदय का कथन है -"लौह, वाष्प और विद्यत के इस
युग में जिस ओर भी मुड़कर देखें, गणित ही सर्वोपरि है।
यदि रीढ़ की हड्डी निकाल दी जाए तो हमारी भौतिक सभ्यता का ही अंत हो जायेगा|"
उपरोक्त सभी बातों के आधार पर हम कह सकते हैं कि दैनिक जीवन में गणित का ज्ञान
परम आवश्यक है। गणित चूल्हा चौका से लेकर अंतरिक्ष तक अपनी उपयोगिता के पैर फैलाये
हुए है।
पाठ्यक्रम में गणित का स्थान
पाठ्यक्रम वह साधन है जिसके द्वारा शिक्षा
तथा जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति की जाती है। दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम वह
मार्ग है,
जिसके द्वारा विद्यार्थी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करता
है।
गणित विषय का
शिक्षण शूक्ष्म एवं दुरूह है इसलिए इस बात की ओर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है कि
अध्यापक विषय की दृढ़ता को आसान बनायें तथा दैनिक जीवन में उसके उपयोग पर प्रकाश डालें ।
अमेरिका की गणित परिषद तथा गणित अध्यापकों की राष्ट्रीय परिषद ने सन् 1933 में
'गणित का शिक्षा में स्थान' का अध्ययन करने के लिए
तथा 'गणित के पाठ्यक्रम'
का निर्माण करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया। आयोग का
उद्देश्य गणित पाठ्यक्रम में लचीलापन तथा क्रमबद्धता लाना था।
इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53)
ने संस्तुति की है कि, "गणित को पूर्व माध्यमिक कक्षाओं तक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाये।
पूर्व माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर कार्यक्रम का विशिष्ट उद्देश्य विद्यार्थियों को मानवीय ज्ञान तथा क्रियाकलापों के मुख्य
विभागों से साधारण रूप से परिचित कराना है ।"
इंग्लैण्ड में भी कालांतर में स्कूलों तथा विश्वविद्यालयों के गणित के पाठ्यक्रमों
में परिवर्तन किये गए हैं। यूरोप के आर्थिक सहयोग संगठन ने सन् 1961 में एक पुस्तक
‘न्यू थिन्किंग इन स्कूल मैथमेटिक्स’ में प्रकाशित की। इसके पश्चात इंग्लैण्ड में
गणित की राष्ट्रीय परिषद ने गणित के पाठ्यक्रम में सुधार हेतु अनेक परिवर्तन किये।
प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान शिक्षा में गणित का सदैव महत्वपूर्ण स्थान रहा। गणित
की उपयोगिता को देखते हुए समय-समय पर उसके पाठ्यक्रम में अनेक परिवर्तन हुए। गणित
को अनिवार्य विषय मानते हुए उसे पाठ्यक्रम में विशेष स्थान देने के निम्नलिखित
मुख्य कारण हैं-
1. गणित एक यथार्थ विज्ञान है।
2. गणित तार्किक दृष्टिकोण पैदा करता
है।
3. गणित का जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध
है।
4. गणित विज्ञान विषयों की तरह
सामाजिक जीवन में उपयोगी है।
5. गणित विज्ञान विषयों की आधारशिला
है।
6. गणित एक विशेष प्रकार के सोचने का
दृष्टिकोण प्रदान करता है।
अतः गणित अत्यंत
प्राचीन और महत्वपूर्ण विद्या है। भारतवर्ष में वैदिक काल से ही इसे सबसे ऊँचा
स्थान प्राप्त रहा है। भारतीय विद्वानों को गणितशास्त्र का ज्ञान वेदों से प्राप्त
हुआ। आज विश्व को ऐसे-ऐसे सूत्र हमारे वेदों ने दिए हैं, जिनके लिए विश्व सदैव भारत का ऋणी रहेगा।
वर्तमान समय में गणित शिक्षण विद्यार्थियों के ऊपर अपना गहरा प्रभाव रखती है।
पग-पग पर विभिन्न परीक्षाएं उनकी प्रतीक्षा करती हैं। अतः ऐसे में विद्यार्थियों को
एक ऐसी गणित शिक्षण पद्धति की आवश्यकता है, जो उनके कठिनाई
स्तर को कम कर सके।
वर्तमान समय में छात्रों के गणित
विषय के प्रति अरुचि के कारण
शिक्षा में किसी भी विषय का महत्त्व
एवं स्थान इस बात पर निर्भर करता है कि वह विषय शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त
करने में किस सीमा तक सहायक हो रहा है। यदि कोई विषय शिक्षा को उद्देश्यों की
प्राप्ति में अधिक सहायक सिद्ध होता है, तो उस विषय की
महत्ता अधिक हो जाती है। प्राचीनकाल से ही गणित अन्य विषयों की अपेक्षा शिक्षा के
उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिक सहायक सिद्ध हुआ है। परन्तु वर्तमान समय में यह
छात्रों के लिए अरुचि का कारण भी बना है। विद्यार्थियों
में सबसे अधिक भय गणित विषय में ही रहता है।
विद्यार्थियों की गणित विषय के प्रति
अरुचि के निम्नलिखित कारण हैं -
1. गणित एक जटिल विषय है जिसके सीखने
के लिए एक विशेष प्रकार की बुद्धि और मस्तिष्क की आवश्यकता होती है। अतः सभी बच्चों को गणित की शिक्षा ग्रहण करने में कठिनाई होगी।
2. अभ्यास के अभाव के कारण छात्र
गणित विषय में कमजोर हो जाता है, ऐसे में उसे गणित विषय
में अरुचि उत्पन्न हो जाती है।
3. गणित शिक्षण में सहायक सामग्री का
अभाव।
4. शिक्षक का विषय के प्रति पूर्ण
ज्ञान का अभाव।
5.
शिक्षक की प्रभावपूर्ण भाषा का आभाव।
6.
गणित के सूत्रों को स्मरण करने के अभ्यास का अभाव।
7.
गणित में अभ्यास का अभाव।
8.
विद्यार्थियों में आर्थिक संसाधनों का अभाव।
9.
विद्यार्थी की आर्थिक, मानसिक तथा
सामाजिक परेशानियाँ।
10.
अच्छे शिक्षकों का अभाव।
समस्या का चयन
आज गिरते हुए शिक्षा स्तर को देखकर यह समस्या उत्पन्न हो गयी है कि शिक्षा के
स्तर में सुधार कैसे किया जाए। इसी समस्या के समाधान हेतु आज नवीन प्रकार की
शिक्षण पद्धतियाँ अपनायी जा रही हैं। आज हम गणित शिक्षण के निम्न स्तर
के कारणों का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। दिन-प्रतिदिन सबसे अधिक विद्यार्थी गणित
विषय में अनुत्तीर्ण हो रहे हैं, जिसके दो मुख्य कारण
सामने आते हैं -
1.
छात्रों की दृष्टि से यह विषय अधिक कठिन है।
2.
आज का विद्यार्थी प्रारम्भ से ही इतना कमजोर होता है की
अधिक समय बर्बाद करने के बावजूद भी उसकी गणित में उपलब्धि संतोषजनक नहीं हो पाती
है।
इन दोनों कारणों के अध्ययन के बाद यह
आवश्यकता हो जाती है कि विद्यार्थियों को गणित की ऐसी शिक्षण पद्धति का अध्ययन
करवाया जाए जिससे विद्यार्थियों की दुर्बलतायें दूर हों तथा गणित के प्रति उनकी
रूचि बनी रहे।
अध्ययन का उद्देश्य
अध्ययन का उद्देश्य विद्यार्थियों की
गणितीय समस्याओं को हल करना है। वर्तमान गणित शिक्षण की विधियों का सरल व सहज ढंग
से विश्लेषण करना है। विद्यार्थियों को गणित के भय से मुक्त करना है। हज़ारों विद्यार्थी
गणित में अनुत्तीर्ण होने के भय से परीक्षा छोड़ देते हैं। अतः वर्तमान में ऐसी
समस्याओं को हल करने हेतु गणित की नवीन प्रणालियों का अध्ययन करना है।
वैदिक गणित की आवश्यकता
1. वर्तमान की कठिन गणित पद्धतियों
के कारण विद्यार्थियों के लिए गणित विषय हौवा बना हुआ है। वैदिक गणित के प्रश्न
सरल, सहज एवं शीघ्र हल करने की पद्धतियां उनके लिए इस विषय को रोमांचक एवं आनंददायक
बना देती हैं।
2. वैदिक गणित पद्धति की स्वाभाविक
मानसिक प्रणालियों के नियमित अभ्यास से मस्तिष्क का स्वतः ही सर्वांगीण विकास होने
लगता है। यह कंप्यूटर द्वारा प्रश्न हल करने से संभव नहीं है।
3. वैदिक गणित में प्रत्येक गणितीय
समस्या को हल करने की अनेक विधियाँ हैं जिनके प्रयोग से विद्यार्थियों में उत्साह, आनंद,
विश्वास और अनुसन्धान प्रवृत्ति का जागरण होता है।
4. यह गणित के अध्ययन में क्रांति लाने
वाला है तथा शोध एवं विकास के लिए नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
5. वैदिक गणित द्वारा उत्तर की जाँच
सरल रूप में की जा सकती है।
6. वैदिक गणित द्वारा हर भारतीय के
हृदय में अपने देश,
धर्म, संस्कृति और इतिहास के
प्रति गौरव की भावना पैदा होती है। इससे अपने महान पूर्वजों के प्रति हमारा मस्तक
श्रद्धा से नत हो जाता है। यह भावना "शॉर्टकट्स इन मैथ" कहने से नहीं आ
सकती है।
7. वैदिक गणित पद्धति ग्रामीण, नगरीय,
प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च
शिक्षा प्राप्त के विद्यार्थियों के अनुरूप विशेष रूप से सुखद एवं रोमांचकारी बनाती
है। वैदिक गणित की पद्धतियों का अभ्यास करने पर उत्तर जल्दी निकलता है और गलती
होने की सम्भावना घट जाती है। कागज कलम की आवश्यकता न्यूनतम होती है और कई बार तो
एक पंक्ति में उत्तर लिखना संभव हो जाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं में समय के अभाव
को देखते हुए वैदिक गणित का प्रयोग अत्यंत
लाभदायक है।
वैदिक गणित से सम्बन्धित पूर्ववर्ती
शोधों का विवरण
‘वैदिक गणित’ की उपयोगिता को देखते
हुए समय-समय पर अनेक शोध तथा अध्ययन हुए। मैकाले की शिक्षा पद्धति के भारत में
लागू होने से पूर्व भारतीय पाठशालाओं में गणित शिक्षा वैदिक गणित रीति से पढ़ाई
जाती थी,
यह बात अलग है कि "ये विधियाँ वैदिक काल से ही विकसित
होती रही हैं।"
· सर्वप्रथम वैदिक गणित की पुनर्खोज का श्रेय पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण
तीर्थ जी को जाता है,
जिन्होंने प्राचीन पाठ्य
पुस्तकों का अध्ययन कर 1958 में 'वैदिक गणित' नामक कृति की रचना की जिसमें उनहोंने गणित के सोलह सूत्री सिद्धांतों की
व्याख्या की,
जो 1965 में प्रकाशित हुई।
· वैदिक गणित के क्षेत्र में टी०जी० उन्कल्तेअर, एस० सेशाचाला राव ने 1997 में ‘इंट्रोडक्शन
ऑफ़ वैदिक मैथमेटिक्स’ नामक पुस्तक की रचना की।
· डॉ० टी०जी० पाण्डेय ने
वैदिक गणित पर शोध कार्य करते हुए ‘जगत गुरु संकराचार्य, श्री भारती कृष्ण तीर्थ’ के
नाम से पुस्तक का अनावरण किया जिसमें उनहोंने उनके सोलह सूत्री सिद्धांतों की
व्याख्या की।
· 1960 में जब वैदिक गणित नामक इस
पुस्तक की प्रतिलिपि लंदन पहुँची तब गणित की इस नयी वैकल्पिक प्रणाली की प्रशंसा
की गयी। इसके सूत्रों से प्रभावित होकर ब्रिटिश गणितज्ञों जैसे कैनेथ विलियम्स, एण्ड्र्यू निकोलस तथा जेरेमी पिकल्स ने अनेक विद्यालयों में इसकी शिक्षा
प्रारम्भ की और शोध कार्य करते हुए 1982 में ‘इंट्रोडक्टरी लेक्चर्स ऑन वैदिक
मैथमेटिक्स’ नामक पुस्तक का अनावरण
किया।
· भारत में 1968 में महर्षि योगी ने
11-14 वर्ष की आयु के बच्चों के ऊपर वैदिक गणित का अध्ययन किया।
·
1995 में विद्या भारती ने अपने विद्यालयों में
वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया।
वैदिक गणित का परिचय
'वैदिक गणित' गणित की
प्राचीन प्रणाली पर आधारित है जिसका प्रारम्भ वैदिक युग में हुआ था। यह सामान्य
नियमों एवं सिद्धांतों पर आधारित गणना की एक अद्वितीय प्रविधि है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार की गणितीय समस्या को मौखिक रूप से हल किया जा
सकता है।
कुछ लोग इस बात
का विरोध करते हैं कि वैदिक गणित क्यों कहा जाता है। जिस प्रकार हिंदुओं की
आधारशिला वेदों को माना गया है, उसी प्रकार गणित का
अस्तित्व भी वेदों में विद्यमान है। वेद आज से 5000 ईसा पूर्व लिपिबद्ध किये गए
थे। इन वेदों में हज़ारों वर्ष पूर्व वैदिक गणितज्ञों ने गणित विषय पर अनेक शोध और
औपचारिक वार्तालाप का संकलन किया। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इन लेखों में ही
बीजगणित, लघुगणक, वर्गमूल, घनमूल, ज्यामितीय गणना की विभिन्न विधियों तथा शून्य
की परिकल्पना की नींव रखी गयी।
यह प्रणाली सोलह
वैदिक सूत्रों पर आधारित है। ये वास्तव में शब्द सूत्र हैं, जो सभी प्रकार की गणितीय समस्याओं को हल करने की सामान्य
विधियों का वर्णन करते हैं। ये सोलह सूत्र संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं, जो आसानी से कण्ठस्थ हो जाते हैं और किसी भी बड़ी से बड़ी गणितीय समस्या को
शीघ्रता से हल कर देते हैं।
वैदिक गणित का इतिहास
वैदिक गणित का प्रारम्भ तो वैदिक काल
से हो चुका था परन्तु इसका अस्तित्व 20वीं
शताब्दी से माना जाता है। बीसवीं शताब्दी में यूरोपीय देशों में संस्कृत
पाठ्य - वस्तुओं के प्रति विशेष रूचि थी। इन पाठ्य वस्तुओं में गणितीय सूत्र
विद्यमान थे,
जिन्हें नकार दिया गया क्योंकि कोई भी इन सूत्रों में गणित
को नहीं खोज सका।
वर्तमान समय में
वैदिक गणित का पुनरुज्जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं है। इनका अध्ययन न केवल गणितीय
प्रमेयों तथा अनुमितियों के लिए है बल्कि ये मानसिक विकास में भी सहायक हैं।
प्राचीन धार्मिक
ग्रंथों से वैदिक गणित की पुनर्खोज का श्रेय परम पूज्यनीय श्री भारती कृष्णतीर्थ
जी को कहा जाता है। इनका जन्म 1884 ई० में हुआ था। इनके पिता का नाम स्वर्गीय श्री
पी० नरसिंघ शास्त्री जो उस समय तित्रिवेली (मद्रास प्रान्त) में तहसीलदार थे।
भारती कृष्णतीर्थ
जी जो कि पुरी पीठ के शंकराचार्य भी थे उन्होंने प्राचीन पाठ्य पुस्तकों का गहन
अध्ययन किया तथा 1958 में वैदिक गणित नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक को वैदिक गणित के कार्यों का आरम्भिक बिंदु
माना जाता है।
वैदिक गणित का विकास
1960 के दशक के अंत में जब वैदिक
गणित नामक इस पुस्तक की प्रतिलिपि लंदन पहुंची तब गणित की इस नयी वैकल्पिक प्रणाली
की सभी के द्वारा प्रशंसा की गयी। कैनेथ विलियम्स, एण्ड्र्यू निकोलस तथा जेरेमी पिकल्स जैसे ब्रिटिश गणितज्ञों ने भी इस नयी
प्रणाली में रूचि दिखाई। इन सभी ने मिलकर भारती कृष्ण जी की इस पुस्तक आरम्भिक
सामग्री का विस्तार किया तथा लंदन में इस पर कई व्याख्यान भी दिए गए। 1981 में इन
व्याख्यानों को एक पुस्तक के रूप में संकलित किया जिसे 'इंट्राडक्टरी लेक्टर्स ऑन वैदिक मैथमैटिक्स' कहा गया। 1981-87 के मध्य में एण्ड्र्यू निकोलस ने भारत की कई सफल यात्राएँ
की जिससे उसे वैदिक गणित में रूचि जाग्रत हुई। उसने अपने देश में इस गणित का
प्रसार किया।
ये सूत्र गणित की सभी शाखाओं अंकगणित, बीजगणित,
ज्यामिति, ठोस, समतल,
त्रिकोणमितीय, शंकु, खगोलिकी,
कैलकुलस, अवकलन, समाकलन
आदि के प्रत्येक अध्याय और प्रत्येक अध्याय के प्रत्येक भाग में उनका प्रयोग किया
गया है। गणित का कोई भी भाग इसके अधिकार क्षेत्र से परे नहीं है। ये सूत्र समझने,
कण्ठस्थ करने तथा उपयोग में आसानी से लाये जा सकते हैं।
डॉ० एल० एम० सिंघवी (यूनाइटेड किंगडम
में भारत के भूतपूर्व उच्चायुक्त) ने भी इस प्रणाली का उत्साहपूर्वक समर्थन किया
है। उनके अनुसार, "सामान्यतः एकल
सूत्र ही विशेष कार्यों के एक-दूसरे से भिन्न व विस्तृत मात्रा के समाधान के लिए
पर्याप्त होगा तथा संभवतः आज के कंप्यूटर युग में यह किसी भी योजनाबद्ध चिप के
समतुल्य है।" वैदिक गणित की प्रशंसा करते हुए क्लाइव मिडिलटन का विचार है की, "ये सूत्र मस्तिष्क के प्राकृतिक रूप से कार्य
करने की विधि को समझाते हैं, जिस कारणवश ये सूत्र विद्यार्थी
को उत्तर देने की उचित विधि स्पष्ट करने में मददगार साबित होते हैं।"
वैदिक गणित के सोलह सूत्र एवं उनका
अर्थ
सूत्र -1- एकाधिकेन पूर्वेण
अर्थ - पहले से एक ज्यादा।
उपयोग- इस सूत्र का उपयोग दी गयी संख्या से अगली
संख्या को प्राप्त करने में किया जाता है।
सूत्र -2- निखिलम नवतश्चरमं दशत:
अर्थ - सभी
नौ में से तथा अंतिम दस में से।
उपयोग - इस सूत्र का उपयोग क्रियात्मक आधार से पूरक
ज्ञात करने में किया जाता है।
सूत्र -3 -
ऊर्ध्वतिर्यग्भ्याम्
अर्थ - सीधे
और तिरछे दोनों विधियों से।
उपयोग - इस सूत्र का उपयोग संख्याओं की ऊर्ध्व व तिर्यक
गुणा करने में करते हैं।
सूत्र -4 - परावर्त्य
योजयेत्
अर्थ - पक्षान्तर
एवं समायोजन।
उपयोग - इस सूत्र
का उपयोग क्रियात्मक आधार से पूरक तथा अधिकाय ज्ञात करने में करते हैं।
सूत्र -5 - शून्यं साम्यसमुच्चये
अर्थ -
जब कोई व्यंजक समान है तो वह व्यंजक शून्य है।
उपयोग-
इस सूत्र का उपयोग उस संख्या को ज्ञात करने में किया जाता है
जो सभी में उभयनिष्ठ हो व शून्य के बराबर होगा। इस सूत्र को निम्न प्रकार से उपयोग
किया जा सकता है।
(1)यदि किसी समीकरण में कोई पद
उभयनिष्ठ हो और वह पद शून्य के बराबर हो।
(2)यदि एक समीकरण में स्वतंत्र चरों
का गुणनफल समान हो तब चर का मान शून्य होता है।
(3)यदि दो भिन्नों के अंश समान हो, तब दोनों हरों का योग शून्य के बराबर होता है।
(4)यदि एक समीकरण में भिन्नों के अंश व हर का
योग समान हो तब योग शून्य के बराबर होगा।
(5)यदि दो व्यंजक समान हो तो पहले
में से दूसरे व्यंजक को घटाने पर परिणामी शून्य प्राप्त होता है।
सूत्र -6 -आनुरूप्ये शून्यमन्यत्
अर्थ -यदि एक अनुपात में हो तो दूसरा
शून्य होगा।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग एक समीकरण
निकाय में एक चर का मान ज्ञात करने में किया जाता है। जिसमें दूसरे चर के गुणांकों
का अनुपात अचर पदों के अनुपात के बराबर होता है।
सूत्र -7- संकलन व्यवकलनाभ्याम्
अर्थ -जोड़ना व घटाना।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग युगपत
समीकरण में चरों का मान ज्ञात करने में करते हैं। इन युगपत समीकरणों में चरों के
गुणांक विनिमेय होते हैं।
सूत्र -8 -पूरणापूरणाभ्याम्
अर्थ -पूर्णता व अपूर्णता से।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग एक समीकरण
को पूर्ण वर्ग या पूर्ण घन बनाकर चर का मान ज्ञात करने में किया जाता है।
सूत्र -9- चलनकलनाभ्याम्
अर्थ -अवकलन।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग निम्न दो
दशाओं में किया जाता है।
(i)द्विघात के मूल ज्ञात करने के
लिए।
(ii)3, 4, 5 की कोटि के व्यंजकों के गुणनखण्ड करने के लिए।
सूत्र -10 -यावदूनम्
अर्थ -जो भी पूरक हो।
उपयोग -दो अंकीय संख्या का घन ज्ञात
करने के लिए किया जाता है यदि संख्या xy हो तो -
x3 x2 y xy2 y3
2 x2 y 2 xy2
हासिल का ध्यान रखते हुए इनका योग
ज्ञात करते हैं।
सूत्र -11 -व्यष्टि समष्टि
अर्थ -एकाकी एवं समस्त।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग म० स०, ल० स० तथा औसत ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
सूत्र -12-शेषाण्यंकेन चरमेण
अर्थ -अंतिम अंक से शेषफल।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग किसी भिन्न
को दशमलव रूप में व्यक्त करने में किया जाता है।
सूत्र -13 -सोपान्त्यद्वयमन्त्यम्
अर्थ -अंतिम तथा उससे पहले का
दोगुना।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग चर का मान
ज्ञात करने में किया जाता है। जो इस प्रकार है –
सूत्र -14-एकन्यूनेन पूर्वेण
अर्थ -पहले से एक कम।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग निम्न दशाओं
में किया जाता है -
(i)दी गयी संख्या से एक कम संख्या
ज्ञात करने के लिए।
(ii)दो संख्याओं की गुणा के लिए
जिनमें से एक संख्या 9 की आवर्ती संख्या है।
(iii)एक भिन्न को दशमलव में निरूपित
करने के लिए।
सूत्र-15-गुणित समुच्चय:
अर्थ -योग की गुणा।
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग इसके एक
व्यंजक के गुणनखण्डों की जाँच करने में किया जाता है।
एक द्विघातीय या घनीय व्यंजक के
गुणनखण्ड करने पर प्राप्त व्यंजक के गुणांकों का योग, गुणनखण्डों के गुणांकों के योग के गुणनफल के बराबर होगा।
सूत्र -16 -गुणक समुच्चयः
अर्थ -गुणकों का समुच्चय (सभी गुणक)
उपयोग -इस सूत्र का उपयोग निम्न
दशाओं में करते हैं -
(i)संख्याओं की गुणा में शून्यों की
संख्या ज्ञात करने में।
(ii)दशमलव संख्याओं की गुणा में
दशमलव का स्थान ज्ञात करने में।
वैदिक गणित के उपसूत्र
1. आनुरूप्येण -अनुरूपता के द्वारा
2. शिष्यते शेषसंज्ञः -बचे हुए को
शेष कहते हैं।
3. आद्यमाद्येनान्त्यमन्त्येन-पहले
को पहले से,
अंतिम को अंतिम से।
4. केवलैः सप्तकं गुण्यात्-‘क’, ‘व’, ‘ल’ से 7 से गुणा करें।
5.वेष्टनम्- विभाजनीयता परीक्षण की
एक विशिष्ट क्रिया का नाम।
6.यावदूनं तावदूनं-जितना कम उतना और
कम।
7.यावदूनं तावदूनीकृत्य वर्गं च योजयेत्- जितना कम उतना और
कम करके वर्ग की योजना भी करें। 8.अन्त्योर्दशकेअपि-अंतिम अंकों का योग दस।
9.अन्त्ययोरेव-केवल अंतिम द्वारा।
10.समुच्चगुणित:-सर्व गुणन।
11.लोपनस्थापनाभ्याम्-विलोपन एवं
स्थापना द्वारा।
12.विलोकनम्-अवलोकन द्वारा।
13. गुणितसमुच्चय: समुच्चयगुणित:-गुणांकों के
समूहों का गुणनफल और गुणनफल के गुणांकों का योग समान होगा।
वैदिक गणित एवं सामान्य गणित के
अनुप्रयोगों की तुलना
अंकगणित
अंकगणित का मौलिक अर्थ है अंक
विज्ञान। इस विषय के अंतर्गत अंकगणितीय संक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, जिनमें
से कुछ निम्न हैं –
गुणा
सामान्य गणित से गुणा वैदिक गणित से गुणा
शून्यान्त संख्या का
प्रयोग कर योग
वे संख्यायें जिनका अंतिम अंक शून्य
होता है।
एकाधिकेन पूर्वेण
किसी अंक पर एकाधिक चिह्न ( . ) लगाने पर उसका मान एक अधिक हो जाता है। इस विधि में संख्याओं को जोड़ते समय
अंकों का जोड़ जैसे ही दो अंकों की संख्या में प्राप्त होता है वैसे ही बाएँ अंक
(पूर्व अंक) पर एकाधिक चिह्न ( . ) बिंदु लगा देते हैं।
इकाई में अगले अंक को जोड़ते हुए संकलन की क्रिया संपन्न करते हैं।
व्यवकलन
एकाधिकेन पूर्वेण सूत्र
के प्रयोग से व्यवकलन
इस विधि में एक संख्या में से दूसरी
संख्या को घटाने के लिए दायीं ओर से घटाना प्रारम्भ करते हैं।
यदि दूसरी संख्या का अंक बड़ा है तब
इसके बायीं ओर की संख्या के ऊपर
एक बिंदु ( . ) लगाते हैं उस अंक को (10 +) की संख्या में से घटाते हैं। अब इस बिंदु वाली
संख्या को घटाने के लिए उसे एक अंक बढ़ा लेते हैं।
इस प्रक्रिया को संख्या के अंत तक
चलाते हैं।
एकन्यूनेन पूर्वेण
सूत्र द्वारा
अंतर ज्ञात करने के लिए अंक को हासिल लेते हैं तथा ऊपर वाली संख्या की बायीं
ओर वाले अंक के नीचे एक बिंदु ( . ) लगाते हैं तथा इस अंक का अंतर ज्ञात करने के लिए पहले बिंदु वाले अंक में से
एक घटाते हैं।
निखिलम् सूत्र द्वारा
इस विधि में उन संख्याओं का प्रयोग
किया जाता है जिसमें ऊपरी संख्या 10 का गुणक हो इस सूत्र का अर्थ 'अंतिम 10 में से शेष 9 में से' है। दायीं ओर के
अंक को 10 में से तथा शेष को 9 में से घटाते हैं।
वर्ग
आनुरूप्येण द्वारा
दो अंकों की संख्या के लिए -
माना संख्या xy है
(xy)2 = x2/
2xy/y2
तीन अंकों की संख्या के लिए - माना xyz संख्या है
(xyz)2
= x2/ 2x(yz)
/ (yz)2
बीजगणित
वर्णमाला के अक्षर को बीज कहते हैं,
संख्याओं के स्थान पर इन बीजों का उपयोग जो गणित करता है वह बीजगणित कहलाता है|
बीजगणित की विभिन्न विधियों का अध्ययन वैदिक गणित द्वारा इस प्रकार है -
बीजीय संकलन
उदहारण: 2x-3y+4z, x+2y-z तथा 3z-x-y का योग कीजिये |
बीजीय व्यवकलन
जिस संख्या को घटाना है उसके चिह्न
पलट देते हैं
उदहारण: 3x3+4x2+8x+9 में से x3
+9x+10
बीजीय गुणन
ऊर्ध्वतिर्यक विधि
द्वारा
उदहारण: (5x+3)
(x+4)
5x 5x 3
+3
x x 4
+4
5x2 +23x+12 = 5x2 +(20x+3x)+12
बीजीय गुणनखण्ड
निखिलम् सूत्र द्वारा
द्विघाती त्रिपदी व्यंजक का गुणनखण्ड
उदहारण: x2+5x-24 के
गुणनखण्ड
=x(x+5)-24
=x(x+8-3) / 8*(-3)
=x+8 8
=x-3 -3
=(x+8 )(x-3)
संकेत –(i) x रहित पद = -24 अतः एक विचलन धन तथा दूसरा ऋण|
(ii) मध्य पद का गुणांक +5 अतः बड़ा विचलन धन होगा|
(iii) संभावित जोड़े (1, 24), (2, 12),
(3, 8) तथा (4, 6)|
(iv) सही विचलनो का जोड़ा (+8, -3)|
(v)
अतः दो गुणनखण्ड स्पष्ट हैं| (a2-b2 के रूप में)
अध्ययन के निष्कर्ष
आधुनिक गणित यूक्लिड के समय से अभी
भी विकास में है| गिनती से गणित तक, यह हजारों वर्षों की यात्रा रही है जो दुनिया
के विभिन्न सिरों में फैली हुई है|
प्रारम्भिक संक्रियाओं या अंकगणितीय अवधारणाओं की उत्पत्ति भारतीय वेदों में हुई
तथा शून्य भी भारत की ही देन है| निर्विवाद रूप से आधुनिक गणित की जड़ें वैदिक ही
हैं जिसे हमने अज्ञानतावश/गुलामी के लम्बे कालखण्ड के प्रभाववश/मैकाले शिक्षा
पद्धति के प्रभाववश विस्मृत कर दिया है| अतः कोई भी प्राचीन भारत का आधुनिक गणित
में योगदान आसानी से समझ सकता है|
वैदिक गणित एवं सामान्य
गणित में तुलना
अंतर का आधार
|
वैदिक गणित
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नियमित / सामान्य गणित
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सूत्र
|
16 सूत्र, 15 उपसूत्र
|
असंख्य सूत्र
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तकनीक
|
मानसिक गणना तकनीक| वैदिक
गणित पूर्णतयः मस्तिष्क में ही हल की जा सकती है
|
जटिल गणना, अधिक समय लेने वाला, क्रमवार हल करना
|
कार्यप्रणाली
|
बिलकुल सरल, प्रत्यक्ष और मौलिक
|
असंगत और बेतुका
|
संगतता
|
प्रत्येक सूत्र और उपसूत्र सुन्दरतापूर्वक परस्पर सम्बद्ध
और संयुक्त है
|
असम्बद्ध तकनीकों का घालमेल
|
उपागम
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सरल तथा शीघ्र, उत्तर प्राप्ति के एक से अधिक मार्ग
|
कठिन और विस्तृत, सूत्रों का विविधतापूर्ण प्रयोग संभव
नहीं
|
कठिनाई
|
औसत से भी कम कठिन, सूत्रों को समझना एवं स्मरण करना सरल
|
अत्यंत कठिन, ग्रहण करने हेतु कई माह के अभ्यास की
आवश्यकता है
|
अधिगम अवधि
|
एक माह में पूरे पाठ्यक्रम को आसानी से सीखा जा सकता है
|
पाठ्यक्रम को सीखने के लिए कई माह लग सकते हैं
|
शिक्षण प्रतिमान
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अनुकूलक एवं गत्यात्मक, विद्यार्थी की विशिष्ट आवश्यकताओं
के अनुरूप
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कठोर एवं अपरिवर्ती
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दक्षता
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विद्यार्थियों को बड़ी संख्याओं के प्रयोग में असाधारण
दक्षता की प्राप्ति
|
ऐसा कोई लाभ नहीं
|
गति
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पलक झपकते ही गणना!अन्य तरीकों की तुलना में 5 गुना तीव्र
|
घोंघा-गति, संगणक / गणन यन्त्र पर निर्भरता
|
अनेक विश्वविख्यात वैज्ञानिकों तथा
गणितज्ञों ने वैदिक गणित को “प्रकृति की जीवित गणित के प्रति जागृति” के रूप में
माना है| उनका विश्वास है कि इस अनुशासन की गहरी समझ गणित की जटिल समस्याओं को एक
नए दृष्टिकोण से देखने में मदद कर सकती है| तभी ये प्रतिभाएं बिजली की गति से बड़ी
संख्याओं को पारम्परिक विधि के अलावा नए ढंग से हल करने की क्षमता रखती हैं|
अतः
वैदिक गणित का लाभ जन-जन तक पहुँचाने के लिए इसे शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर गणित
के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की
आवश्यकता है| वैदिक गणित के प्रयोग से विद्यार्थी गणित से भागेंगे नहीं / डरेंगे
नहीं, वरन् सरल एवं रोचक रूप से / खेल-खेल में गणित का अध्ययन करने में समर्थ हो
सकेंगे|वैदिक गणित द्वारा चुटकियों में गणना करना विद्यार्थियों को न केवल
प्रतियोगी परीक्षाओं में सहायक होगा बल्कि उनके विमर्शी चिंतन स्तर को विकसित कर
सकेगा|
सुझाव
1.वैदिक गणित के क्षेत्र में अधिकाधिक अनुसन्धान किये जाने की आवश्यकता है ताकि
-
· वैदिक गणित के अन्य गूढ़ रहस्यों पर से पर्दा उठाया जा सके|
· आधुनिक गणित में प्रयोग सम्बन्धी नवीन सम्भावनाओं को उजागर किया जा सके|
· संगणक को और अधिक तीव्र बनाने हेतु वैदिक गणित के सूत्रों पर आधारित सॉफ्टवेर
निर्माण किया जा सके |
अतः वैदिक गणित को अनुसन्धान के प्राथमिकता
क्षेत्र में सम्मिलित किया जाना चाहिए|
2.परंपरागत शिक्षण व्यवस्था में संस्कृत को गणित के विद्यार्थियों के लिए
अनिवार्य किया जाना चाहिए अथवा इन दोनों धाराओं (गणित तथा संस्कृत) को एक किया
जाना चाहिए, ताकि विद्यार्थियों में वैदिक गणित के सूत्रों की समझ बेहतर हो सके|
3.वैदिक गणित की विभिन्न कार्यशालाओं तथा प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया
जाना चाहिए जिससे यह केवल विद्यार्थियों के लिए ही नहीं अपितु अध्यापकों के लिए भी
शिक्षण कार्य में गुणात्मक सुधार हेतु सहायक सिद्ध हो सके|
सन्दर्भ
1. महाराज कृष्णतीर्थ भारती (2002) वैदिक गणित, मोतीलाल
बनारसीदास पब्लिशर्स प्रा० लि०, नई दिल्ली
2.www.sovm.org( स्कूल ऑफ़ वैदिक मैथ्स )
3.https://www.myschoolpage.com/vedic-maths-vs-modern-maths/
4. वर्मा
विनीता (2010-2011) ‘वैदिक गणित शिक्षण पद्धति की वर्तमान गणित शिक्षण में
उपयोगिता’, अप्रकाशित लघु शोध, अतर्रा पी० जी० कॉलेज, अतर्रा*शोध छात्रा-शिक्षा संकाय, अतर्रा पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, अतर्रा (बाँदा)
Nice article
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